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सरकारी बंधुआ-मजदूर ……..संविदा- कर्मी

AAKARSHAN
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ज़मींदारी-प्रथा के उन्मूलन के बाद, भारत सरकार द्वारा कुछ वर्षो पूर्व गरीबी हटाने का संकल्प लिया गया और बंधुआ मजदूरी को समाप्त करके , निजी ,पूर्व-ज़मींदारों ,धन-पशुओं या अन्यत्र कहीं भी बंधक के रूप में कार्य करने वाले श्रमिकों एवं महिलाओं को, शोषण से बचाने का वीणा उठाया गया.सरकारों को काफी हद तक सफलता भी मिली.लेकिन बढ़ती महंगाई से त्रस्त सरकारों को, बढ़ते प्रशासनिक -व्यय को कम करने की सूझी,जो समय की मांग भी थी.विधायको,सांसदों एवं मंत्रियों के खर्चों में तो कटौती कर नहीं सकते थे,तो उनके सिपहसालारों और सलाहकारों को बंधुआ मजदूरी की स्वर्णिम याद आई,और उन्होंने सरकार को सुझाव दे डाला. सरकार की बांछे खिल गयीऔर उसने इस सुझाव को व्यावहारिक रूप देने का वीणा उठा लिया.लेकिन ‘बंधुआ’ शब्द से बगावत हो सकती थी.अतः इसे ….संविदा..नाम दे दिया गया.यहीं से शुरू हुआ सरकारी शोषण का नया अध्याय.
आज पढ़े -लिखे शिक्षित एवं कुशल बेरोजगारों ,अभियंताओं,चिकित्सकों और अकुशल कारीगरों की फ़ौज खड़ी है,जिन्हें रोजी-रोटी की आवश्यकता है.मरता क्या न करता ?संविदा पर ही सही,अपना और परिवार का पेट पलना है तो कुछ भी सही.लेकिन भ्रष्टाचार के भवसागर में सुविधा या सहयोग राशि के रूप में , उन्हें क़र्ज़ लेकर या गिरवी रख कर ,कुछ न कुछ देना ही होता है .मनरेगा योजना से जहाँ कुछ ग्रामीण श्रमिको को रोज़गार मिला वहीँ कुछ को निकम्मा बना दिया.२५ से ५०% का भुगतान ,केवल अंगूठा निशान देकर, वह भी घर बैठे और प्रधानो की भी चांदी.शिक्षितों की दशा तो मनरेगा श्रमिकों से भी बदतर है.सरकारी संविदा -कर्मी रुपया २००० से ३००० प्रतिमाह पर,शिक्षक भी इसी रेट में.लेकिन यदि आप महाविद्यालय या स्नातकोत्तर महाविद्यालय में है तो आप को ४००० से ६००० तक मिल जायेंगे.महिला महा -विद्यालयों की दशा तो और सोचनीय है.लेकिन बजट लेना हो या खर्च के आंकड़े प्रस्तुत करना हो तो ,खासकर दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में,प्रवक्ताओं को प्रतिमाह १०००० से २५००० तक दिखाए जाते है,और शुल्क निर्धारण की अनुमति या मान्यता प्राप्त कर ली जाती है.इसके अतिरिक्त स्टाफ एवं शिक्षकों की संख्या भी अधिक दिखा दी जाती है.ऐसा भी होता है कि कुछ चालाक प्रधानाचार्य /प्रबंधक ,शिक्षको का जीरो-बैलेंस पर बैंक खता खुलवा लेते हैं और ए टी एम कार्ड अपने पास रख लेते हैं,ताकि पूरा भुगतान दिखाकर ,किसी भी जांच से बचा जा सके.शिक्षकों का मुंह बंद रखने के लिए ,उनका इस्तीफा भी शुरू में ही रख लिया जाता है.शहरी क्षेत्रों में भी लगभग यही स्थिति है.यहाँ भी विद्यालयों में १५०० से ३००० रूपये में और महा-विद्यालयों में ५००० से १०००० रूपये में पीएच .डी.डिग्री वाले शिक्षक मिल जायेंगे.कितना फंड किस मद में आता है और कहाँ खर्च हो जाता है इसे लेखाकार ,प्रधानाचार्य और प्रबंधक के अतिरिक्त कोई जानने की हिम्मत भी नहीं कर सकता,क्योंकि अगले सत्र में निकाले जाने का भय रहता है.अगर कोई महाविद्यालय कुछ अधिक देता है ,तो शिक्षा की अवधि कम कर देता है,और उसी अवधि में कोर्स समाप्त करने का चाबुक चलाता रहता है,चाहे जो मजबूरी हो और बच्चे समझे या न समझे.
सरकारी विभाग हो या निगम,वहां भी ४००० रूपये प्रतिमाह में अभियंता और २००० में अन्य कर्मचारी अपनी जान जोखिम में डालकर बिजली के खम्भे पर चढ़े हुए मिल जायेंगे.यदि कोई दुर्घटना हो जाती है तो उसे ठेकेदार का आदमी बता दिया जाता है.सरकार दिखावे के लिए ,संविदा पर नियुक्ति के लिए, मना कर देती है तो ठेकेदार के माध्यम से या किसी अन्य मद से उसका भुगतान कर दिया जाता है.यह विभागों की मजबूरी भी होती है क्योंकि कार्मिको की कमी के बाद भी,समय से कामचाहिए.निजी/सरकारी
चिकित्सालयों में रुपया ५००० से १०००० में चिकित्सक और १००० से २५०० तक में अन्य कर्मियों की बहुलता है.हर जगह संविदा कर्मियों के अलावा दैनिक वेतन भोगी भी मिल जायेंगे.इन सभी से १६से १८ घंटे काम लिया जाता है.यह शोषण नहीं तो और क्या है? भारत में ,हो सकता है कि विदेशों की तर्ज़ पर ,इसे अपनाया गया हो ,जहाँ हर क्षेत्र में पांच वर्षो के लिए ही नियुक्ति की जाती है .लेकिन वहां भी योग्यता और क्षमता के आधार पर विस्तार मिलता है .भारत में तो कितने लोग लम्बी सेवा के उपरांत उसी रूप में रिटायर हो गए.समान योग्यता का उसी पद पर कार्य करने वाले नियमित कर्मचारी या अध्यापक रुपया १०००० से चालीस हज़ार पायेगा और समान योग्यता धारक महा/विश्व विद्यालयों के अध्यापक ४०००० से एक लाख या उससे अधिक पाएंगे और हमेशा निकाले जाने का भय रहेगा तो वह अवसादग्रस्त हो जाएगा,यह स्वाभाविक है.
समय आ गया है कि सरकार को इस व्यवस्था को बदलना होगा.यदि सरकार के पास धन का अभाव है तो अधिवर्षता कि आयु घटाई जाय.इसमें कोई विधिक अड़चन है तो उसे दूर किया जाय अन्यथा इसे बढाया तो कदापि न जाय.खाली होनेवाले पदों पर समायोजन किया जाय.तब तक इन्हें उस पद का न्यूनतम वेतन ,अन्य भत्तों के साथ दिया जाय ताकि वे भी सम्मानजनक जीवन जी सकें. संविदा पर कार्य करने वालों को भी जी.पी.एफ./सी.पी.एफ.की सुविधा दी जाय,और नयी पेंशन नीति के अनुसार पेंशन भी दिया जाय.जब विधायकों और सांसदों को एक दिन के कार्यकाल पर भी पेंशन मिल सकता है तो इन्हें क्यों नहीं? हमें अपने इन होनहार बच्चों को अवसादग्रस्त होकर आत्महत्या करने अथवा पलायन से रोकना होगा.जय हिंद! जय भारत!!

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