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ये ..’प्यार’…. भी क्या अजीब चीज़ है.सुना है कि न हो ….तो युवाओं को निराशा,और हो जाये तो…. तमाशा.किशोरावस्था की दहलीज़ पर पैर रखते ही अवचेतन- मन हिचकोले लेने लगता है,और प्यार की पेंग मारने को आतुर होने लगता है. आज-कल की फिल्म हो,टी.वी.सीरियल हो या रिएलिटी-शो ,प्यार की आग को हवा देने का काम करते हैं. ..’प्यार’.. का नाम आते ही सबके ख्यालों में,उनकी नज़रों के सामने, अलग-अलग तरह की, फिल्म चलने लगती है,लेकिन यह फिल्म बिलकुल …प्राइवेट….होती है..सामने बैठा व्यक्ति समझ ही नहीं पाता कि उसके सामने वाला क्या सोच रहा है?इसके पीछे यह भी हो सकता है कि ,उसके ख्यालों में कोई और फिल्म चल रही हो.युवा -वर्ग के दिलों की….. धडकनें तेज हो जाती हैं,और वे अपने गर्ल-फ्रेंड या प्रेमिका ,यदि हो,के…. साथ बिताये पलों को देखने लगता है.यदि न हो,तो कल्पना करने लगता है,अंधेड़ …. अपने बीते पलों को याद करने में जुट जाते हैं.यदि उनका विवाह उसी से नहीं हुआ है,तो पत्नी की नज़रों से बचकर… और यदि पत्नी सामने ही हो,तो संभल-संभल कर ,…..याद करते हैं.यदि पत्नी ने टोक दिया,तो कुछ और सोचने का बहाना करते हैं.बूढ़े लोग….. अपने अतीत को याद करने का प्रयास करते हैं.प्रयास इसलिए भी,क्योंकि अब तक उनका……. याददास्त- पटल धूमिल होने लगता है और न याददास्त साथ देता है न स्वास्थ्य.नज़रें भी कमज़ोर हो जाती हैं.अपने ज़माने के ,इस क्षेत्र के धुरंधर और अब,शिथिलेंद्रिय ,कौंच-कौंच के रह जाते हैं .यही बातें उन युवतियों पर और महिलाओं पर भी लागू होती हैं,जो इस दौर से गुज़र रही हो या गुज़र चुकी हों.फिर्क सिर्फ इतना होता है कि उनके मन की बात,…दैवो न जानाति… खैर!जो भी हो,आजकल के अधिकांश लोग इस रोग जानकार हैं.लेकिन एक ऐसा भी वर्ग होता है,जो भाई-बहन ,मम्मी-पापा और दादा-दादी के ‘प्यार’ को ही जानता है,क्योंकि उसका मन निर्मल होता है,और वह प्यार के किसी अन्य अर्थ की समझ से कोसों दूर होता है.
जैसा कि,मुझे जानकारी है,कुछ वर्ग ऐसा है जो ‘प्यार’ और ‘प्रेम’ को अलग-अलग मानते हैं.इनका तर्क यह है कि ‘प्यार’ विपरीत-लिंग वालों,कभी-कभार …गे..भी,के प्रति आकर्षण से उत्पन्न होता है,जिसकी परिणति वासना में होती है.लेकिन ..’प्रेम’ कुछ विशेष या आकस्मिक परिस्थितियों के फलस्वरूप उत्पन्न होता है,इसमें वासना प्रधान नहीं होता अथवा वासना का स्थान नहीं होता.वे लोग इसे आध्यात्म से जोड़कर देखते हैं.मीरा और कृष्ण ,राम और सीता ,राधा और कृष्ण के प्रेम को कौन नहीं जानता.हमारे देश में तो कृष्ण की रास-लीलाओं का प्रदर्शन हर वर्ष ही होता रहता है,लेकिन इसमें वासना नहीं आध्यात्म होता है.आध्यात्म की समझ सब को नहीं होती है,शायद मुझे भी नहीं .आज-कल तो पार्कों या अन्य सार्वजानिक स्थानों पर ,जोड़े रास-लीला करते हुए मिल जायेंगे.पकड़े जाने पर कृष्ण की रास-लीला का उदहारण देने लगते हैं. उन्हें यह पता होता है की,वह रस-लीला कर रहे थे. जो भी हो,….’प्यार’…हो…..या….प्रेम…दोनों में ढाई-अक्षर ही होते हैं.फर्क होता है तो….सिर्फ समझ का.
समय के साथ-साथ प्यार के इज़हार का तरीका भी बदलता जा रहा है.ऐसा नहीं है की पहले लोग प्यार नहीं करते थे.यह तो सृष्टि … की रचना के साथ ही चला आ रहा है,बल्कि….. उसके पहले से भी, कहना उचित होगा.वैसे भी,बिना प्यार के कुछ भी नहीं होता.फर्क इतना है की समय-समय पर इसे अच्छे या बुरे रूप में परखा जाता है.शायद ही…. ऐसा कोई प्राणी हो जो इससे अछूता रहा हो.देवी-देवताओं ,ऋषि-मुनियों या महापुरुषों के प्रेम के विषय में भी सुना जाता रहा है…..पहले भी प्यार करते थे लोग,लेकिन चोरी-छिपे.उस समय प्यार का इज़हार इशारो-इशारों से होता था.पुराने समय में… प्यार शर्म का चादर ओढ़े रहती थी.ऐसा भी नहीं है की उस समय….. सेक्स नहीं होता था,लेकिन… परदे में और विवाह के उपरांत.अपवाद उस समय भी थे.लेकिन अब तो…… प्यार हाई-टेक हो गया है .पहले तो इज़हार करने के लिए…. स्याही,कलम-दवात और कागज़ की आवश्यकता होती थी,किसी-किसी मामले में,स्याही के स्थान पर….. खून का प्रयोग ,अति-उत्साही लोगो द्वारा ,किया जाता था.इसमें पकड़े जाने का भय ज्यादा था.पकड़े जाने पर आव-भगत भी अच्छी तरह से होती थी.भला हो इस……… इलेक्ट्रानिक और कंप्यूटर-युग की,जिसने पकड़े जाने के भय को …न्यूनतम रिस्क-ज़ोन… में ला दिया है. चलते-चलते या…… जब चाहे,जहाँ से चाहे बात कर सकते हैं.जब चाहे,जहाँ चाहे …..मिल सकते हैं.पहले भी प्रेमी-प्रेमिका मिलते थे.लेकिन अब उस गाने का कोई महत्त्व नहीं रह गया है,जिसमे……मै तुझसे मिलने आई ,मंदिर जाने के बहाने….वाली पंक्तियाँ थी.बाहर मिलने का समय न हो तो….. चैटिंग कर लीजिये.देखने या मिलने का समय न मिले तो…. फेस -बुक है ना. पहले के ज़माने में प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे से…. मिलने का बहाना खोजते थे.ज्यादातर टकरा…… जाते थे.परदे के पीछे से या बुर्के की आड़ में…….. ही प्यार हो जाता था,बेचारे बिना पूरा चेहरा देखे ही ही दीवाने हो जाते थे,और केवल देखने के लिए…. सैकड़ों रास्ते अपनाते थे.कम से कम दो फिल्मों का नाम तो… मै बता सकता हूँ.एक थी….. मेरे महबूब …..और दूसरी……चौदहवीं का चाँद. लेकिन अब किसी बहाने की आवश्यकता नहीं है………रेस्तरां,आफिस या पार्क ……कहीं भी मिल सकते हैं ,केवल मोबाईल साथ होना चाहिए.माल और मल्टीप्लेक्स….. भी हैं.अब तो शादियाँ भी हाई-टेक हो गयीं हैं.हवा में और हेलीकाप्टर पर शादियों की प्रतियोगिता शुरू हो गई है.कुछ प्रगतिशील परिवारों में……… तो हवा में सबके सामने ही,शादी के बाद वाला प्रारंभिक-इज़हार भी हो जाता है.नीचे लोग तालियाँ बजाकर ही संतोष कर लेते हैं.बेचारे… दर्शक-दीर्घा से…… और कर भी क्या सकते हैं.अब तो कुछ प्रगतिशील लोग,परजनों एवं मित्रो की उपस्थिति में,जयमाल के बाद ही ,तालियों की गड़गड़ाहट के बीच ही ,….प्रारंभिक इज़हार…कर दे रहे हैं. बाद में समय मिले या …या न मिले,और मिले भी तो न जाने कब तक.हाँ ,एक इजहारे-सीन और भी ,कभी-कभार …ए.सी. डिब्बो में कुछ भाग्यशाली लोगो को …देखने को मिल जाता है, लेकिन वहां ..पर्दा भी लगा होता है, और सामने वाला… शर्म से अपनी ….आँखें बंद कर लेता है.
ऐसा भी नहीं है की हाई-टेक युग में… ऐसे लाभार्थी..पकड़े नहीं जाते हैं.हाँ ,यह अवश्य है कि इसके मौके कम ही होते हैं.इस हाई-टेक युग में तो माँ-बाप की जिम्मेदारियां काफी कम हो गयी हैं.लेकिन …..बाबू जी ज़रा सुनना,बड़े धोखे हैं ,इस प्यार में….अनेको लड़कियां ,कभी-कभी लड़के भी,धोखा-धड़ी के शिकार हो जाते हैं,और जब तक पता चलता है,…..बहुत देर हो चुकी होती है.फिर तो …….जहाँ हम आ के पहुंचे है ,वहां से लौट कर जाना ,नहीं मुमकिन मगर मुश्किल है दुनिया से भी टकराना…..के सिवाय कुछ भी नहीं याद आता है. वैसे तो इस प्रगतिशील देश में, लड़की-लड़के का मिलना या देखना अब बुरा भी नहीं माना जाता.कुछ परिवार तो अकेले में बातें करने का पूरा मौका देते हैं, और बाकी काम तो दूर-संचार कम्पनियाँ पूरा कर देती हैं,उनकी आमदनी भी बढ़ जाती है.यहाँ तक तो सब ठीक है,लेकिन कुछ…… अति-प्रगति शील परिवार तो ,कई दिनों तक बाहर साथ-साथ घूमने और एक-दूसरे को समझने का पर्याप्त अवसर भी देते हैं. कुछ मल्टी-नेशनल कम्पनियाँ ……विदेशों में भेज कर और एक ही सुइट में साथ -साथ रहने की व्यवस्था करके ,एक दूसरे को ……परखने का अवसर देते हैं.कुछ सफल भी हो जाते हैं. अब तो फिल्म वाले भी इसे भुनाने लगे हैं.एक फिल्म…शायद,…..हम आप के दिल में रहते हैं….में तो कुछ महीने साथ रहने का बाक़ायदा एग्रीमेंट…. दिखाया था,शर्त यह थी कि यदि इस अवधि में लड़के को लड़की से प्यार हो गया ,तो शादी कर लेंगे. लेकिन वही हुआ जिसका डर था.अपने हर तरह के प्रयासों के बाद भी,वह लड़के के दिल में जगह नहीं बना सकी.
ये सारी बातें मैंने सुनी या फिल्मों में देखी हैं.मैं तो इस मायने में भाग्यशाली नहीं रहा.मै तो बस यही जनता हूँ कि’ प्यार’ या ‘प्रेम’ वही होता है,जो सच्चे मन से किया जाय.एक इंसान,का दूसरे इंसान से ‘प्रेम’ ही सच्चा ‘प्यार’है.आज-कल के समाज में अपना विशेष स्थान बनाने वाला,आधुनिक ………………..प्यार होता है क्या…हम नहीं जानते…….जय हिंद! जय भारत!!
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